संस्कृत भाषा देवताओं से लेकर आम लोगों तक को मिठास देती रही है। कई लोग तो संस्कृत श्लोकों का मतलब भी नही समझतें, लेकिन उसकी मधुरता से मुग्ध हो जाते है
शिवतांडव स्तोत्र, महामृत्युंजय मंत्र, अयि गिरिनंदिनी जैसे गीत हर दिन कहीं न कहीं से सुनने को मिल जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते है संस्कृत भाषा को हिन्दवी स्वराज स्थापना करने वाले मराठों की तीन पीढ़ियों ने बड़े प्रेम संजोया और पोषित किया था?
हिन्दू/हिन्दवी स्वराज का प्रथम प्रयास करने वाले शाहजी राजे याने छत्रपति शिवाजी महाराज के पिताजी थे. उनको संस्कृत से विशेष प्रेम था। कई वर्षों तक शाहजी राजे बेंगलुरु के प्रभारी रहे। तब उन्होंने पुणे और आसपास के अन्य कन्नडा भाषी क्षेत्रों से संस्कृत पंडितों को आमंत्रित किया। उन्ही के प्रयासोंसे उस वक्त बेंगलुरु एक संस्कृत हब के रूप में विकसित हुआ। शाहजीराजे के निमंत्रण पर राधामाधवविलासचम्पु ये संस्कृत ग्रंथ जयराम पिंडये द्वारा लिखा गया।
उस समय, याने मध्यकाल तक मे हिंदू मनसबदार भी अपनी मुद्राएं फ़ारसी में बनाते थे। लेकिन स्वाभिमान से परिपूर्ण शाहजीराजे को यह कैसे पसंद आता?
हिंदू स्वराज्य का सपना देखने वाले शाहजीराजे ने इस फ़ारसी प्रभाव को तोड़ दिया। उन्होंने अपने बेटे शिवबा के लिए खास संस्कृत में मुद्रा बनवाई. शिवबा ने जब अपना स्वतंत्र राज्य स्थापन किया और वे छत्रपति शिवाजी महाराज बने, तब वही संस्कृत मुद्रा उनकी राजमुद्रा बनाई गई।
मुद्रा मतलब stamp. आजकल जैसे किसी सरकारी कागज पर सरकार द्वारा और संबंधित अधिकारियों द्वारा stamp लगवाया जाता है, ठीक उसी तरह छत्रपति शिवाजी महाराज के हर अधिकृत कागज पर बड़े शान से संस्कृत राजमुद्रा विराजमान हुआ करती थी!
जब शिवाजी महाराज ने एक संप्रभु राज्य की स्थापना की, तब उनका राज्याभिषेक करने काशीसे महापण्डित गागाभट्टजी को बुलाया गया था. उसी प्रसंग का वर्णन करने वाला एक संस्कृत ग्रंथ "शिवराज्याभिषेक कल्पतरु" लिखा गया। इसी काल में शिवाजी महाराज का पहला चरित्र "शिवभारत" संस्कृत भाषा में लिखा गया। मराठी भाषा को शुद्ध बनाने, फ़ारसी शब्दों का प्रभाव दूर करके नए मराठी शब्द बनाने के लिए महाराज ने संस्कृत के आधार लिया. उनके ही आदेश पर पहला मराठी डिक्शनरी याने शब्दकोष का निर्माण हुआ जिसमें सारे फ़ारसी शब्दों को बेदखल करके उनके पर्यायवाची संस्कृत शब्दों को मराठी भाषा मे समाविष्ट कर दिया गया. उस पुस्तक को राजव्यवहारकोष कहते है।
दो पीढ़ियों के संस्कृत प्रेमियों के बाद शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजीराजे भला संस्कृत के अमृत से कैसे दूर रह सकते थे! वे विद्वता के शिखर पर पहुँचे और उन्होंने संस्कृत पुस्तक बुधभूषणम् की रचना की। संभाजीराजे की राजमुद्रा भी संस्कृत में होती थी। यह परंपरा चलती रही. औरंगजेब के स्वराज पर आक्रमण के बाद संभाजीराजे ने मुगलो के राजपुत सरदार रामसिंह को पत्र लिखकर सहायता हिंदुत्व के लिए साथ लड़ने अपील की। यह पत्र भी संस्कृत भाषा में लिखा गया था।
आज के दौर में जब हर बात पर हमें प्रादेशिकतामें बांटने के राजनीतिक प्रयास चल रहे हो, तब सभी को जोड़ने वाली संस्कृत का पुनरूत्थान बेहद जरूरी है। देवताओं को प्रसन्न करने वाली देवभाषा तो संस्कृत सदियों से है। लेकिन क्या हमारे मन मे राष्ट्रीय एकता जगाकर संस्कृत अब प्रेमभाषा बन सकती है?
विश्व संस्कृत दिवस की शुभकामनाएँ!
- प्रथमेश चौधरी
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